मंगलवार, 8 दिसंबर 2009



परमात्मा के संग से योग और संसार के संग से भोग होता है।
सुख की इच्छा आशा और भोग ये तीनो सम्पूर्ण दुखो के कारण है।
सुख की इच्छा का त्याग कराने के लिये ही दु:ख आता हैं।
शरीर को मै और मेरा मानना प्रमाद है। प्रमाद ही मृत्यु है।
नाशवान् को महत्व देना ही बंधन हैं।
नाशवान की चाहना छोड़ने से अविनाशी तत्व की प्राप्ति होती है।
शरीर संसार से अपना सम्बंध मानना कुसंग है।
आप भगवान को नही देखते पर भगवान आपको निरन्तर देख रहे हैं।
ऐसा होना चाहिये ऐसा नही होना चाहिए इसी मे सब दुख भरे हुए हैं।
अपने स्वभाव को शुद्व बनाने के समान कोई उत्रति नही हैं।
अच्छाईका अभिमान बुराई की जड़ है।
मिटने वाली चीज एक क्षण भी टिकने वाली नही होती।
शरीर को मैं मेरा मानने से तरह तरह के अनन्त दुख आते है।
दूसरो के दोष देखने से न हमारा भला होता है न दूसरो का ।
नाशवान की दासता ही अविनाशी के सम्मुख नही होने देती ।

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